कागजों पर योजनाएं, जमीनी हकीकत में सिर्फ शोषण , किसानों के नाम पर चल रही लूट ।
मालिक बाबु/संजीत मिश्रा
चतरा (मयूरहंड)। प्रखंड क्षेत्र में किसानों के नाम पर चलाई जा रही सरकारी योजनाएं हकीकत में कितनी कारगर हैं, इसकी सच्चाई खेतों में साफ देखी जा सकती है। किसानों को न समय पर सरकारी बीज मिलते हैं, न ही खाद या कीटनाशक। मजबूर होकर उन्हें निजी बाजार से महंगे दामों पर खरीदारी करनी पड़ रही है, जिससे उनकी लागत बढ़ती जा रही है और मुनाफा लगातार घट रहा है। सरकार भले ही किसानों की आय दोगुनी करने की बात कर रही हो, लेकिन जमीनी सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है। कृषि विभाग से लेकर पंचायत स्तर तक योजनाएं कागजों में सजी हैं, लेकिन जब बात वितरण की आती है, तो अधिकांश किसान वंचित रह जाते हैं।
वास्तविकता यह है कि कृषि उपकरण, बीज, खाद और दवाएं या तो समय पर नहीं पहुंचतीं, या फिर जब तक मिलती हैं तब तक उपयोग का उपयुक्त समय गुजर चुका होता है। ऐसे में सवाल उठता है — क्या यह लापरवाही नहीं, बल्कि किसानों के साथ खुला मजाक नहीं?
किसानों के नाम पर बनती हैं समितियां, पर लाभ शून्य
जिला से प्रखंड और पंचायत स्तर तक कृषि पदाधिकारी, आपूर्ति पदाधिकारी, वैज्ञानिक, डॉ., सलाहकार, BTM, ATM, जनसेवक, पैक्स अध्यक्ष, ग्राम कृषि मित्र, आर्या मित्र, आजीविका सखी मंडल जैसी कई व्यवस्थाएं बनी हुई हैं। लेकिन हकीकत यह है कि कई किसानों को प्रति एकड़ एक किलो बीज या एक बोरा खाद भी नहीं मिल पा रहा। सरकार की मंशा तो स्पष्ट रूप से किसान हितैषी है, पर मध्यम स्तर के पदाधिकारी व स्थानीय समितियां योजनाओं को पलीता लगा रही हैं। कागजों पर सब कुछ पारदर्शी है, लेकिन जमीन पर हालात बेकाबू।
राजनीतिक चुप्पी और योजनागत भ्रष्टाचार का गठजोड़
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस गंभीर मुद्दे पर न तो सांसद संज्ञान लेते हैं और न ही विधायक। तालाबों की खुदाई से लेकर बीज वितरण तक — हर योजना में लीपापोती और भ्रष्टाचार की बू आती है। पिछले वर्ष लाखों की लागत से तालाब खुदवाए गए, लेकिन उनमें जलनिकासी की कोई व्यवस्था ही नहीं बनाई गई। कारण — स्टीमेट में प्रावधान ही नहीं था!
यह सिर्फ लापरवाही नहीं, बल्कि सुनियोजित शोषण है। यह वही हालात हैं, जिन्हें आम बोलचाल में “अंधेर नगरी चौपट राजा” कहा जाता है। पदाधिकारी धृतराष्ट्र बने हुए हैं और इंजीनियर कमीशन के पुजारी। आम जनता की आवाज उठाने वाले कार्यकर्ताओं को चुप करा दिया जाता है। यदि योजनाओं का लाभ सच में किसानों तक पहुंचाना है, तो ज़मीनी स्तर पर जवाबदेही तय करनी होगी। वर्ना कागजों पर समृद्धि और खेतों में बदहाली का यह खेल यूं ही चलता रहेगा।