*रांची/हजारीबाग ( संजीत मिश्रा )*। यह शर्मसार करने वाली, दुःखद और अंतर्मन को झकझोरने वाली घटना है, जो दर्शाती है कि समाज में स्वार्थ किस हद तक हावी हो चुका है। लोग खुद तक सिमटते जा रहे हैं, जिससे नाते-रिश्तों पर विराम लग रहा है। भावनात्मक दूरी बढ़ती जा रही है, और परिवारों में बिखराव बढ़ रहा है, जिसके कारण ऐसी हृदयविदारक घटनाएं सामने आ रही हैं।
डॉ. प्रेम दास, हजारीबाग के एक विख्यात सर्जन, जिनकी मृत्यु के बाद भी किसी अपने का हाथ उनके अंतिम संस्कार के लिए आगे नहीं बढ़ा। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि उनकी देह 48 घंटे तक अस्पताल की मोर्चरी में अपनों के इंतजार में पड़ी रहेगी। उनकी दो बेटियां—एक अमेरिका में और दूसरी मुंबई में—लेकिन कोई भी अंतिम विदाई के लिए नहीं आ सका। अमेरिका में रहने वाली बेटी नहीं आई, और मुंबई में रहने वाली ने अपनी बीमारी का हवाला दे दिया। अन्य रिश्तेदार, जो बिहार और झारखंड में थे, उन्होंने भी दूरी बनाए रखी।
अंतिम विदाई भी अपनों के बिना
आखिरकार, 48 घंटे के इंतजार के बाद, 77 वर्षीय डॉ. प्रेम दास का अंतिम संस्कार उनकी पत्नी प्यारी सिन्हा और कुछ साथी चिकित्सकों ने समाजसेवी नीरज कुमार की मदद से खिरगांव श्मशान घाट पर संपन्न कराया। नीरज कुमार वही व्यक्ति हैं जो अज्ञात शवों का अंतिम संस्कार करवाने का कार्य करते हैं।
क्या यही समाज का सच बनता जा रहा है?
यह घटना केवल एक परिवार की नहीं, बल्कि आज के समाज की सच्चाई को उजागर करती है। माता-पिता अपने बच्चों को पालने, पढ़ाने और एक बेहतर भविष्य देने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देते हैं, लेकिन कुछ परिवारों में इसका अंत ऐसा कटु भी हो सकता है। यह विडंबना ही है कि हजारीबाग ही नहीं, बल्कि पूरे राज्य, देश और विशेष रूप से महानगरों में, सैकड़ों बच्चे अपने बुजुर्ग माता-पिता को छोड़कर अपनी नई दुनिया में व्यस्त हो जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि जैसे संस्कार वे अपने बच्चों को देंगे, वही उनके साथ भी भविष्य में होगा।
समाज को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता
यह घटना एक गंभीर आत्मचिंतन की मांग करती है—क्या हम अपने माता-पिता के प्रति उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने वे हमारे लिए थे?